जनतंत्र या हठतंत्र यानि देश में गणतंत्र दिवस
NewsBreathe Special. गणतंत्र दिवस पर देश की राजधानी दिल्ली के लाल किले पर जो हुआ, वो संविधान के 72 साल में कभी नहीं हुआ. इस बार लाल किले पर दो झंडे लहराए गए. पहला- देश का राष्ट्रीय ध्वज, जो हमारे देश के साथ साथ संविधान का प्रतीक है. दूसरा- खालसा पंथ का ध्वज, जो किसान आंदोलन का प्रतीक बना. लाल किले की प्राचीर के सामने किसान और पुलिसकर्मियों के बीच हुए टकराव में कई घायल हुए लेकिन इस बार का गणतंत्र दिवस देश में ही नहीं बल्कि दुनियाभर की सुर्खियों में रहा. देश में जनतंत्र चल रहा है या हठतंत्र, ये तो बाद की बात है, पर एक बात बिलकुल साफ है कि जो कुछ हुआ गलत हुआ लेकिन जब संसद-सरकार खामोश तो सड़क से आवाज तो आएगी ही. 60 दिनों से अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे किसानों की आवाज पर केंद्र सरकार अपने कान तो बंद कर सकती है लेकिन आवाज को खामोश नहीं करा सकती.
इतिहास गवाह है. जब इंदिरा गांधी ने लाल किले पर झंडा फहराया था, तब ऐसा ही एक आंदोलन देश में चल रहा था. किसानों का नेतृत्व करते हुए जय प्रकाश ने पहली वक्त लाल किले का रुख किया था और सैंकड़ों किसानों को लेकर लाल किले के सामने वाले मैदान में पहुंच गए थे. हालांकि लाल किले का माहौल शांत था. इस प्रदर्शन के 48 घंटे बाद देश ने इंमरजेंसी का मंजर देखा और सत्ता पर काबिज सरकार ने चुनावों में पराजय का मुख. पराजय इसलिए क्योंकि धरती पुत्रों का सरकार ने दमन करना चाहा. इस बार में कुछ ऐसा ही माहौल देखने को मिल रहा है और पहले से भी कहीं भयावह.
संसद में मोदी सरकार ने बिना वोटिंग और राज्यों से सलाह मशवरा किए बगैर कृषि बिलों को कानून की शक्ल दे दी. पार्लियामेंट से बाहर आते ही इन कानूनों का विरोध शुरु हो गया. सबसे पहले पंजाब में विरोध की आग लगी और पहले हरियाणा और फिर पूर्वी उत्तर प्रदेश से होते हुए इस विरोध प्रदर्शन ने देश के कई राज्यों को अपने आगोश में ले लिया. अब सरकार का रुख भी अजीबोगरीब रहा. उन्होंने प्रदर्शन के पहले 40 दिनों में इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जब 100 से अधिक धरती पुत्रों ने अपने प्राणों की आहुति दी तो उन्हें इस आरे ध्यान देना पड़ा. वार्ताएं हुई और असफल रहीं. इसके बाद किसानों ने लाल किले पर चढ़ाई करने का ऐलान किया तो सरकार ने अपना पल्ला झाड़ते हुए सुप्रीम कोर्ट की ओट ली. यहां ज्युडिसरी ने भी उस कमेटी का गठन कर दिया जो पहले से ही सरकार के नुमाइंदे थे.
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जो हुआ वो ठीक था लेकिन सरकार की हठधर्मिता तो ये है कि वो किसी भी कीमत पर इस कानूनों से पीछे नहीं हट रही. भारत एक संविधानिक देश है और यहां नागरिकों की बात का अपना मान है, उनकी आवाज को दबाया नहीं जा सकता लेकिन सरकार ने हठ ठान रखी है और 11 दौर की वार्ता के बाद डेढ़ साल कानूनों को स्थगित करने का एक मात्र विकल्प किसानों को दिया है जिसे किसान मानने को तैयार नहीं. अब किसानों ने एक फरवरी को संसद तक मार्च निकालने का ऐलान कर अपनी आवाज वहां पहुंचाने का फैसला लिया है जहां सरकार और देश के संविधान के नुमाइंने बैठकर चर्चा करते हैं.
यहां सरकार का ये भी कहना है कि इस आंदोलन के पीछे कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों का हाथ है लेकिन गौर करने वाली बात तो ये है कि अन्य पार्टियों का समर्थन इस आंदोलन को कमजोर करने का काम कर रहा है न कि मजबूत. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओर खुद महामहीम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अपने भाषण में इन कानूनों का समर्थन कर चुके हैं.
सरकार का कहना है कि ये कानून किसानों के लिए हितकारी होंगे जबकि किसानों का कहना है कि एमएसपी का मुल्य निर्धारण कर उन्हें लाभ दिया जा सकता है जो केवल मौखिक आश्वासन पर टिके हैं. किसान लिखित में एमएसपी यानि फसल का न्यूनतम समर्थन मुल्य का प्रावधान लिखित में हो जिस पर सरकार का तर्क है कि पिछले 70 सालों में किसी सरकार ने ऐसा नहीं किया. जब सरकार अनुच्छेद 370, धारा 35ए, सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कठिन निर्णय ले सकती है तो 70 सालों का इतिहास बदलने में क्या दिक्कत है.
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कृषि कानूनों पर मोदी सरकार की हठधर्मिता का क्या कारण है? क्या इनका उद्योगपतियों से कोई चाहा या अनचाहा संबंध है? बेहद कमजोर आर्थिक परिस्थियों के बीच इन कानूनों का लागू करने की सरकार को क्या बाध्यता है? ऐसे कई सवाल हैं जो पार्लियामेंट के खुलने के साथ ही सरकार से पूछे जाएंगे लेकिन ये भी सच है कि किसानों का प्रदर्शन रुकने वाला नहीं है.
अगर सरकार की हठ और लोगों को प्रदर्शन करने की छूट अगर इसी तरह मिलती रही तो वो दिन दूर नहीं जब कोई मुंह उठाकर प्रदर्शन करने मैदान में निकल पड़ेगा और वो दिन भी दूर नहीं जब लाल किले पर दो नहीं बल्कि कई तरह के ध्वज फहराते हुए दिखाई देंगे!