बेरोजगारी जान पर बन आई, बहुत बुरा हाल है लेकिन दोष किसका?
- एक बेरोजगार युवक ने बेरोजगारी से तंग आकर अपने एम.काम समेत सभी सर्टिफिकेट फाड़ दिए और फिर पेड़ से लटक कर जान दे दी, इधर सरकारें अपने मुलाजिमों का बढ़ा रही महंगाई भत्ता
…मामला उत्तराखंड के नैनीताल जिले के रामनगर कस्बे का है। बताया जा रहा है कि 24 साल का सोनू बिष्ट एक साल से बेरोजगार था। उसकी मां गंभीर बीमार है। कुछ समय उसने सीटीआर निदेशक के कार्यालय में कंप्यूटर ऑपरेटर का कार्य किया लेकिन बाद में उसे हटा दिया गया। वह तीन-चार बार सेना में भर्ती के लिए भी गया पर भर्ती न हो पाया। गुरुवार को वह घर से चला गया। शुक्रवार शाम कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के बिजरानी रेंज जंगल में उसका पेड़ से लटका शव मिला।
…यही हाल देश और प्रदेश के लाखों युवाओं का है। नौकरियां छूटने से युवा अवसाद में हैं। घरों में कोई व्यवस्था नहीं है। भोजन जुटा भी लिया जाए तो अन्य खर्चों के लिए भारी अभाव हो चुका है। उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद भी हाथों के लिए काम नहीं है। हाल में कुछ युवाओं ने घर का धन लगाकर, लोन लेकर दुकानें खोली थीं. अब ये दुकानें भी धड़ा-धड़ बंद होने लगी हैं। हर व्यक्ति भारी कर्ज में डूब चुका है। (बेरोजगारी)
…शातिर किस्म के लड़के नशा, चोरी, व्यभिचार, बदमाशी में लगे हैं। सामान्य युवा भारी डिप्रेशन में जी रहे हैं। हंसते-खेलते घर-परिवार की जिम्मेदारी उठाने वाले युवाओं को अब मौत आसान लगने लगी है। हरियाली पर पौधे लगाने वाले नेता, घरों को उजाड़ने पर तुले हैं। यहां जंगल आबाद हो रहे और घर बर्बादी की कगार पर पहुंच चुके हैं।
… सोनू की आत्महत्या जवां सपनों की हत्या है और ये एक मरते समाज की निशानी है। अब सवाल ये आकर खड़ा होता है कि क्या सरकारें इसकी अपराधी हैं? क्या ये राजनेताओं की साजिश है? या फिर इसे कोरोना की तरह एक प्राकृति या अप्राकृतिक आपदा मानकर स्वीकार कर लिया जाए कि कोई कुछ भी नहीं कर सकता.
मान्यवर, सरकारी कर्मचारियों के साथ प्राइवेट सेक्टर के बारे में भी जरा सोचिए!
सवाल एक और भी मुंह बाय खड़ा है कि हाल में केंद्र और बीते दिवस राजस्थान की गहलोत सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में 11 फीसदी की बढ़ोतरी की है. ये भत्ता अब 17 फीसदी से बढ़कर 28 फीसदी हो गया है. क्या सरकार का ये फैसला न्याय संगत और तर्क संगत है. गौर करने वाली बात ये है कि कोरोना काल और लॉकडाउन के दौरान एक सरकारी तबका ही ऐसा है जिसने मुफ्त सैलेरी की मलाई चाटी है जबकि आम आदमी तो बिना आजीविका के ही घरों के अंदर कैद होकर रह गया. संस्थान बंद होने से लाखों करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए. सरकारी आंकड़े भी बेरोजगारी के आंकड़ों को बयां कर चुके हैं. बाद की कहानी तो उपर दिखाई दे ही रही है.
सवाल फिर से वही आकर खड़ा हो गया है – क्या सरकारें इसकी अपराधी हैं?